दीवार
दीवार
शाम का समय हैं, सूरज सांझ की आगोश में क्षीण हो रहा हैं और अँधेरा चुपके से अपने अस्तित्व की हाज़िरी दे रहा हैं |
मैं दीवार के इस पार खड़ी हूँ, और पता नहीं पर लगता हैं कि शायद तुम भी दीवार के उस पार खड़े हो |
दीवार बहुत ऊँची और मज़बूत मालुम पड़ती हैं | नफरत और हिंसा के नीव पर खड़ी ये दीवार इसे लांघने की कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ती|
तुम कहते थे ना कि मजहब की ये दीवार हमारे जुनून के कद से कभी ऊँची नहीं हो सकती, झूठ कहते थे तुम |
झूठ कहते थे तुम जब तुम इन दोनों देशों के बीच खींचती हुई लकीर को नज़रअंदाज़ करते हुए मुझे समझाते थे कि शायद ये वह सुबह ही नहीं जिसके इंतज़ार में ३५० साल लम्बी रात गुज़ारी गई थी, कि शायद ये वो मंज़िल ही नहीं जिसके सफर पर हम निकले थे, पर उस सुबह के होने का विश्वास दिलाया था तुमने, उस मंज़िल तक पहुंचने की आस जगाई थी तुमने |
ख़ैर न वो सुबह आई, न ही वह मंज़िल मिली और न ही वह मिला जिसके साथ इन सपनों को सालो तक मैंने संजोया था |
क्या तुम तब भी झूठ बोल रहे थे जब तुमने इस बटवारे को हमारे प्यार की शर्त नहीं बनाने का फैसला किया था ? पर चलो छोड़ो! इन फरियादों का भी क्या फायदा जब सुनने वाला ही दीवार के उस पार हैं और मैं इस पर |
तुम्हे याद हैं कि कैसे पहले यहाँ रहीम चाचा और रमेश काका की चाय की टपरी हुआ करती थी, कितनी ही शामें बिताई थी हमने उस दुकान पर, कितनी ही बातें की थी और न जाने कितनी बातें बाकि रह गई थी |
आज वहां ये दीवार, भद्दे भूरे रंग की दीवार जो हम सबसे ज़्यादा की और परेशान दिखाई पड़ रही हैं |
ये दीवार भी शायद थक गई हैं मेरे जैसे हज़ारों लोगों कि फ़रियाद सुन कर |
इस काली अँधेरी रात में ये दीवार भी कितनी अकेली-सी लग रही हैं | सोचा जाए तो इसकी भी क्या गलती, गलती तो हमारी हैं, हम लोगों की हैं जिन्हे कॉम की झूठी शान के आगे कुछ भी नहीं दिखता |
इसीलिए तो शायद भैया को जब पता चला तुम लाहौर से दिल्ली आ रहे हो मुझे अपने साथ ले जाने, तब उन्होंने ट्रैन के दिल्ली पहुंचे से पहले तुम्हे गायब कर दिया | मैंने बहुत ढूंढा था तुम्हे, कुछ ने कहाँ तुम्हे उन्होंने मार दिया, कुछ ने कहाँ की तुम भैया के डर से भाग गए |
पर मैं तुम्हे जानती हूँ, तुम हो, यही कहीं हो शायद लकीर के उस तरफ, चुपके से मेरी बातें सुन रहे हो और सुन कर फैज़ की वो शायरी याद कर रहे होगे :
यह वह सेहर तो नहीं , जिस की आरज़ू लेकर
चले थे यार की मिल जायेगी कहीं न कहीं ,
अभी चराग -ए -सर -ए -राह को कुछ खबर ही नहीं ,
अभी गरानी -ए -शब् में कमी नहीं आई,
नजात -ए -दीदा -ओ-दिल की घडी नहीं आई ,
चले चलो की वह मंज़िल अभी नहीं आई |
Image credits-AFP via Getty Images
Beautiful ❤️
ReplyDelete❤️❤️
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